प्रभुजी- जीवनी
प्रभुजी एक लेखक, एक चित्रकार है; वे अवधूत है, सार्वभौमिक अद्वैत, प्रति-प्रगतिशील अर्थात “रेट्रोप्रोग्रेसिव” मार्ग के निर्माता और एक आध्यात्मिक गुरु हैं। उन्होंने प्रतिष्ठित जीवा इंस्टीट्यूट, वृंदावन, भारत से वैष्णव दर्शन-शास्त्र में डॉक्टरेट, तथा योग संस्कृतम विश्वविद्यालय से योग दर्शन में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है।
वर्ष २०११ में उन्होंने समाज से संन्यास लेकर एक संन्यासी का जीवन जीने का फैसला किया। तब से उनके दिन एकांत में, प्रार्थना, लेखन, चित्रकारी, मौन, चिंतन एवं मनन में व्यतीत होते रहे हैं ।
प्रभुजी श्री श्रीमद अवधूत श्री ब्रह्मानंद बाबाजी महाराज के एकमात्र शिष्य हैं, जो स्वयं श्री श्रीमद अवधूत श्री मस्तराम बाबाजी महाराज के सबसे करीबी और अंतरंग शिष्यों में से एक हैं।
प्रभुजी को उनके गुरु ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, उन्हें अवधूतों की पवित्र परंपरा को जारी रखने की जिम्मेदारी सौंपी, उन्हें दीक्षा दे कर आधिकारिक रूप से गुरु नियुक्त किया और उन्हें परम पूज्य अवधूत श्री भक्तिवेदांत योगाचार्य रामकृष्णानंद बाबाजी महाराज के नाम से आचार्य उत्तराधिकारी के रूप में सेवा करने का आदेश दिया।
प्रभुजी श्री श्रीमद भक्ति-कवि अतुलानंद आचार्य महाराज के भी शिष्य हैं, जो स्वयं श्री श्रीमद ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के प्रत्यक्ष शिष्य हैं। हम यह कह सकते हैं कि गुरुदेव अतुलानंद ने प्रभुजी के प्रारंभिक शिक्षण में मार्गदर्शक की भूमिका अति स्नेहपूर्वक निभाई, और क्योंकि वह उनके पहले गुरु थे, उन्हें प्रभुजी मिशन के पितामह माना जाता है। गुरु महाराज प्रभुजी के दूसरे और अंतिम गुरु थे जिन्होंने उन्हें उन्नत चरण में मार्गदर्शन प्रदान किया। गुरुदेव ने उनकी आध्यात्मिक विकास में प्रारंभिक शिक्षक के रूप में कार्य किया, जबकि गुरु महाराज ने उच्चतम स्तर पर गुरु की भूमिका को बड़ी तत्परता से निभाया और प्रभुजी के आत्मसाक्षात्कार तक उनका साथ दिया।
प्रभुजी का हिंदू धर्म इतना व्यापक, सार्वभौमिक और बहुलवादी है कि अपनी अवधूत उपाधि को सुस्थित रखते हुए भी कई बार उनकी जीवंत और अम्लान शिक्षाएं सभी दर्शन और धर्मों की सीमाओं को पार कर जाती हैं। उनकी शिक्षा आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देती हैं और उन बयानों पर हमें प्रश्न उठाने के लिए प्रेरित करती हैं जिन को सामान्यतः सत्य माना जाता है। वे किसी भी पूर्ण सत्य अथवा तथ्य की रक्षा नहीं करतीं, बल्कि हमें अपनी धारणाओं का मूल्यांकन और प्रश्न करने के लिए आमंत्रित करती हैं। उनकी समन्वित दृष्टि, “रेट्रोप्रोग्रेसिव” पथ, का सार आत्म-जागरूकता और चेतना की पहचान है। उनके लिए, चेतना के स्तर पर जागरण या अहंकारी घटना का अतिक्रमण, मानवता के विकास का अगला कदम है।
प्रभुजी का जन्म २१ मार्च, १९५८ को चिली गणराज्य की राजधानी सैंटियागो में हुआ था। जब वह आठ साल के थे, तो उन्हें एक रहस्यमय अनुभव हुआ जिसने उन्हें परम सत्य और वास्तविकता की खोज के लिए प्रेरित किया। इसने उनके जीवन को सत्य की खोज की एक यात्रा में परिवर्तित कर दिया। इस प्रारंभिक परिवर्तन और अनुभव को गहराई से समझने के लिए उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह समर्पित कर दिया । इस परिवर्तन ने उनके रेट्रोइवोलुशन प्रक्रिया की शुरुआत को चिह्नित किया। उन्होंने विभिन्न धर्मों, दर्शन, मुक्ति के मार्गों और आध्यात्मिक अनुशासनों के अनुसंधान और अभ्यास में पचास से अधिक वर्षों का समय समर्पित किया है। उन्होंने महान आचार्यों, सूफ़िओं, रोशियों, शेखों, योगियों, पादरियों, स्वामियों, भिक्षुओं, गुरुओं, दार्शनिकों, और संतों की शिक्षाओं को आत्मसात किया, जिनसे उन्होंने अपनी खोज के वर्षों के दौरान व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की। उन्होंने कई स्थानों में निवास किया और सत्य की प्यास में दुनिया भर में यात्रा की।
कम उम्र से ही प्रभुजी ने देखा कि शैक्षिक प्रणाली उन्हें स्वयं के बारे में जानने के लिए समर्पित होने से रोक रही है, जो उनके लिए वास्तव में महत्वपूर्ण था। अपने माता-पिता के आग्रह के बावजूद, उन्होंने ११ वर्ष की आयु में पारंपरिक स्कूल जाना बंद कर दिया और स्वशिक्षा में लग गए । समय के साथ, वह वर्तमान शैक्षिक प्रणाली के एक गंभीर आलोचक बन गए है ।
प्रभुजी पूर्वी ज्ञान के एक मान्यता प्राप्त प्राधिकृत विद्वान हैं। उन्हें वैदिक और तांत्रिक पहलुओं के साथ-साथ हिंदू धर्म के सभी योग शाखाओं (ज्ञान, कर्म, भक्ति, हठ, राज, कुंडलिनी, तंत्र, मंत्र, आदि) में उनकी विद्वता के लिए जाना जाता है। उनका सभी धर्मों के प्रति समावेशी दृष्टिकोण है और वे यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म, सूफीवाद, ताओवाद, सिख धर्म, जैन धर्म, शिंटो धर्म, बहाई धर्म, शमानवाद, और मापुचे धर्म सहित अन्य धर्मों से घनिष्ठ रूप से परिचित हैं। मध्य पूर्व में अपने प्रवास के दौरान, उन्होंने अपने प्रतिष्ठित मित्र और विद्वान, कमिल शचादी द्वारा द्रूज आस्था के बारे में गहन ज्ञान प्राप्त किया। इस दौरान, उन्होंने एक और प्रख्यात परिचित, आदरणीय और ज्ञानी सलाच अब्बास की निकटता से भी लाभ उठाया, जिन्होंने उन्हें इस्लाम और सूफीवाद की गहरी समझ प्राप्त करने में सहायता की। उन्होंने श्रीलंका के वंदनीय डब्ल्यू . मेधानंद थेरो से व्यक्तिगत रूप से थेरवाड़ा बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त की ।
प्रभुजी ने सैंटियागो डी चिली में वेराक्रूज़ चर्च के श्री मोनसिग्नोर इवान लाराइन एइज़ागुइरे और श्री हेक्टर लुइस मुन्होज़ के साथ गहन रूप से ईसाई धर्म-शास्त्र का अध्ययन किया. श्री हेक्टर यूनिवर्सिडाड कैटोलिका डे ला सैंटिसिमा कॉन्सेप्सियन से धर्म-शास्त्र में डिग्रीधारी हैं। उन्होंने डॉक्टर एडुआर्डो वाडिलो रोमरो, जो कि सैन इल्देफोंसो इंस्टीट्यूट (टोलेडो) में धर्म-शास्त्र के प्रोफेसर हैं, और रेव. श्री एरियल लाजकानो के साथ भी धर्म-शास्त्र का अध्ययन किया।
पश्चिमी विचारों के प्रति अपनी जिज्ञासा के कारण प्रभुजी ने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में विभिन्न शाखाओं का अध्ययन किया। उन्होंने पारलौकिक प्रमेयविज्ञान और धर्म की प्रमेयविज्ञान में विशेष ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें अपने फूफाजी जॉर्ज बालाज़, जो एक दार्शनिक, शोधकर्ता और लेखक थे, के साथ कई वर्षों तक गहन अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके फूफाजी ने अपने उपनाम ग्यूरी आकोस के तहत “द वर्ल्ड अपसाइड-डाउन” नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने अर्जेंटीना के साल्टा कैथोलिक यूनिवर्सिटी से स्नातक और प्रसिद्ध दार्शनिक, इतिहासकार, और विश्वविद्यालय प्रोफेसर डॉ. जोनाथन रामोस के साथ कुछ वर्षों तक निजी रूप से अध्ययन किया। उन्होंने डॉ. अलेहांद्रो कावालाजी सांचेज़ के साथ भी अध्ययन किया, जिनके पास यूनिवर्सिडाड पनमेरिकाना से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री, यूनिवर्सिडाड इबेरोअमेरिकाना से दर्शनशास्त्र में मास्टर डिग्री, और यूनिवर्सिडाड नैशनल ऑटोनोमा डे मेक्सिको (यू.न.ए.म.) से दर्शनशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री है।
प्रभुजी के पास वृंदावन, भारत स्थित प्रतिष्ठित जीवा इंस्टीट्यूट से वैष्णव धर्मशारत्र में डॉक्टरेट और योग संस्कृतम विश्वविद्यालय से योगिक दर्शन शास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री है।
उनके गहन अध्ययन, उनके आचार्यों के आशीर्वाद, पवित्र शास्त्रों में उनके शोध, और उनके विशाल शिक्षण अनुभव ने उन्हें धर्म और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलवाई है।
उनकी आध्यात्मिक खोज ने उन्हें विभिन्न परंपराओं के आचार्यों के साथ अध्ययन करने और अपनी जन्मभूमि चिली से दूर इसराइल, भारत और अमेरिका जैसे दूरस्थ स्थानों की यात्रा करने के लिए प्रेरित किया। प्रभुजी ने पवित्र शास्त्रों के ज्ञान को बेहतर समझने के लिए इसराइल में हिब्रू और अरामी भाषाओं का अध्ययन किया। उन्होंने भारत के हैदराबाद स्थित उस्मानिया विश्वविद्यालय की डॉ. नागा कन्या कुमारी के साथ संस्कृत का गहन अध्ययन किया। उन्होंने ऑक्सफोर्ड सेंटर फॉर बौद्ध अध्ययन में पाली भाषा पढ़ी । इसके अतिरिक्त, उन्होंने जेवियर अल्वारेज़, जो सेविला विश्वविद्यालय से क्लासिकल फिलोलॉजी में डिग्रीधारी हैं, उनसे से लैटिन और प्राचीन ग्रीक सीखी । उन्होंने प्रोफेसर जोनाथन रामोस के साथ भी ग्रीक भाषा का अध्ययन किया।
उनके पिता, योसेफ हार-ज़ियोन, जो एक वरिष्ठ पुलिस सार्जेंट के पुत्र थे, कड़े अनुशासन में पले-बढ़े। इस सख्त पालन-पोषणकी प्रतिक्रिया में, योसेफ ने अपने बच्चों को पूरी स्वतंत्रता और बहुत प्रेम के साथ पालने का निर्णय लिया। प्रभुजी बिना किसी दबाव के बड़े हुए। उनके प्रारंभिक वर्षों के दौरान, उनके पिता ने अपने बेटे को स्कूल में उसकी सफलता या विफलता की परवाह किए बिना, समान प्रेम दिखाया। जब प्रभुजी ने स्कूल छोड़ने और अपनी आंतरिक खोज में समर्पित होने का निर्णय लिया, तो उनके परिवार ने इस निर्णय को सम्मान के साथ स्वीकार किया। जब प्रभुजी दस वर्ष के थे, तब से योसेफ उनसे यहूदी आध्यात्मिकता और पश्चिमी दर्शनशास्त्र के बारे में बात किया करते थे । वे कई दिन और देर रातों तक दर्शन और धर्म पर बातचीत करते थे। प्रभुजी अपने पिता की स्वतंत्रता और प्रेम के प्रामाणिक परियोजना है।
बचपन से स्वयं की इच्छा से प्रभुजी ने कराटे सीखना और दर्शन शास्त्र एवं धर्म का अध्ययन करना शुरू कर दिया था । किशोरावस्था में किसी ने उनके निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया। 15 वर्ष की आयु में, उन्होंने प्रसिद्ध उरुग्वे लेखक और कवि ब्लांका लूज ब्रूम के साथ एक गहरी, अंतरंग और लंबी मित्रता स्थापित की । वो सैंटियागो डे चिली में मर्सेड स्ट्रीट पर उनकी पड़ोसी थीं। प्रभुजी ने पुरे चिली में बुद्धिजीवियों से मिलने व उनसे सीखने के लिए भ्रमण किया। उन्होंने दक्षिणी चिली में माचियों से मुलाकात की, जिन्होंने उन्हें मापुचे आध्यात्मिकता और शामन-वाद के बारे में सिखाया।
प्रभुजी की “रेट्रोप्रोग्रेसिव” प्रक्रिया में दो महान आचार्यों का योगदान रहा।
वर्ष १९७६ में, उनकी मुलाकात अपने पहले गुरु, परम-पूज्य श्री भक्तिकवि अतुलानंद आचार्य स्वामी से मुलाकात हुई, इन्हे वह गुरुदेव कहते है ।
उन दिनों, गुरुदेव एक युवा ब्रह्मचारी थे जो सैंटियागो, चिली के पुंते अल्टो में एइज़ागुइरे 2404 स्थित इस्कॉन मंदिर के अध्यक्ष थे। वर्षों बाद उन्होंने प्रभुजी को प्रथम दीक्षा, ब्राह्मणिक दीक्षा दी और बाद में, ब्रह्म गौड़ीय संप्रदाय के अंतर्गत सन्न्यास के पवित्र संघ में दीक्षित किया। गुरुदेव ने उन्हें कृष्ण की भक्ति से जोड़ा। उन्होंने उन्हें भक्ति योग का ज्ञान दिया, महा-मंत्र के अभ्यास और पवित्र शास्त्रों के अध्ययन में निर्देशित किया।
१९९६ में, प्रभुजी ने अपने दूसरे गुरु, परम-पूज्य श्री अवधूत श्री ब्रह्मानंद बाबाजी महाराज, से ऋषिकेश, भारत में मुलाकात की। प्रभुजी उन्हें गुरु महाराज कहते है । गुरु महाराज ने बताया कि उनके अपने परम-पूज्य गुरु, अवधूत श्री मस्तराम बाबाजी महाराज ने अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पहले कहा था कि पश्चिम से एक व्यक्ति आएगा और उनका शिष्य बनने का अनुरोध करेगा। उन्होंने आदेश दिया था कि केवल उसी विशेष साधक को स्वीकार करें। जब उन्होंने पूछा कि वे इस व्यक्ति को पहचानेंगे कैसे, तो मस्तराम बाबाजी ने उत्तर दिया, “आप उसकी आँखों से उसे पहचान लेंगे। आपको उसे स्वीकार करना होगा क्योंकि वह वंश की निरंतरता होगा।” युवा प्रभुजी से पहली मुलाकात में ही, गुरु महाराज ने उन्हें पहचाना और औपचारिक रूप से उन्हें महा-मंत्र में दीक्षित किया। प्रभुजी के लिए यह दीक्षा उनकी “रेट्रोप्रोग्रेसिव” पथ के सबसे प्रभावशाली और परिपक्व चरण की शुरुआत का प्रतीक बनी। गुरु महाराज के मार्गदर्शन में, उन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन किया और अपनी ध्यान साधना की गहराई में गए।
गुरु महाराज ने प्रभुजी को “अवधूत” की उपाधि प्राप्त करने की पहली सोपन की ओर निर्देशित किया । मार्च २०११ में, श्री श्रीमद अवधूत श्री ब्रह्मानंद बाबाजी महाराज ने प्रभुजी को अपने गुरु के आदेशानुसार अवधूतों की परंपरा को जारी रखने की जिम्मेदारी स्वीकार करने का आदेश दिया। इस उपाधि के साथ प्रभुजी इस उत्तराधिकार परंपरा के आधिकारिक प्रतिनिधि हैं।
अपने दीक्षा-गुरुओं के अलावा, प्रभुजी ने कई महत्वपूर्ण आध्यात्मिक और धार्मिक व्यक्तित्वों के साथ अध्ययन किया, जैसे कि पूज्य स्वामी याज्ञवाल्क्यानंद (स्वामी याज्ञवल्क्य आनंद), पूज्य स्वामी दयानंद सरस्वती, पूज्य स्वामी विष्णु देवानंद सरस्वती, श्रीमत् स्वामी ज्योतिर्मयानंद सरस्वती, परम-पूज्य स्वामी कृष्णानंद सरस्वती (डिवाइन लाइट सोसाइटी), पूज्य श्री स्वामी प्रत्यगबोधानंद, पूज्य श्री स्वामी महादेवानंद, पूज्य श्री स्वामी स्वहानंद (रामकृष्ण मिशन), पूज्य श्री स्वामी अध्यात्मानंद, पूज्य श्री स्वामी स्वरूपानंद, और पूज्य श्री स्वामी विदितात्मानंद (अर्श विद्या गुरुकुलम)। भारत में पूज्यनीय माताजी रीना शर्मा ने प्रभुजी में तंत्र-विद्या का ज्ञान जागृत किया।
प्रभुजी अपनी सन्न्यास की दीक्षा को अद्वैत वेदांत की वंशावली में स्थापित करना चाहते थे। उनकी सन्न्यास दीक्षा की पुष्टि पूज्य श्री स्वामी ज्योतिर्मयानंद सरस्वती ने की, जो योग रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक और पूज्य श्री स्वामी शिवानंद सरस्वती (ऋषिकेश) के शिष्य हैं।
सन् १९८४ में उन्होंने महार्षि महेश योगी की ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन तकनीक सीखी और उसका अभ्यास करना शुरू किया। १९८८ में, उन्होंने परमहंस योगानंद द्वारा सिखाई क्रिया-योग का कोर्स किया। दो वर्षों के बाद, उन्हें सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप द्वारा क्रिया-योग की तकनीक में औपचारिक रूप से दीक्षित किया गया।
वृंदावन में उन्होंने पूज्य श्री नरहरि दास बाबाजी महाराज, (जो स्वयं व्रज के नित्यानंद दास बाबाजी महाराज के शिष्य थे) के साथ भक्ति योग के मार्ग का गहन अध्ययन किया।
उन्होंने श्री श्रीमद ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के विभिन्न शिष्यों के साथ भी भक्ति योग का अध्ययन किया: पूज्य श्री कपिन्द्र स्वामी, पूज्य श्री परमद्वैति महाराज, पूज्य श्री जगजीवन दास, पूज्य श्री तमाल कृष्ण गोस्वामी, पूज्य श्री भगवान दास महाराज, और पूज्य श्री कीर्तनानंद स्वामी, इत्यादि।
१९८० में, उन्हें एच.जी पूज्यनीय माता कृष्णाबाई, जो एस.डी.जी. स्वामी रामदास की प्रसिद्ध शिष्या थीं, का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। १९८२ में, उन्हें श्रीला प्रभुपाद के शिष्य श्री कीर्तनानंद स्वामी से दीक्षा मिली, जिन्होंने १९९१ में उन्हें द्वितीय दीक्षा और १९९३ में सन्न्यास दीक्षा भी दी।
प्रभुजी को भारत के कई प्रतिष्ठित धार्मिक और आध्यात्मिक संस्थानों के प्रमुखों द्वारा विभिन्न उपाधियों और डिप्लोमाओं से सम्मानित किया गया है। उन्हें स्वामी विष्णु देवानंद, ( जो स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य और शिवानंद संगठन के संस्थापक थे), द्वारा सम्मानित उपाधि ‘कृष्ण भक्त’ दी गई। स्वामी विष्णु द्वारा दी गयी यह एक मात्र उपाधि थी। उन्हें बी.ए. परमद्वैति महाराज जो वृन्दा के संस्थापक हैं, द्वारा भक्ति वेदांत की उपाधि दी गई। उन्हें पूज्य श्री स्वामी विष्णु देवानंद, परमानंद इंस्टीट्यूट ऑफ योगा साइंसेज एंड रिसर्च (इंदौर, भारत), इंटरनेशनल योगा फेडरेशन, इंडियन एसोसिएशन ऑफ योगा और शंकरानंद योगाश्रम, (मैसूर, भारत), द्वारा योगाचार्य की उपाधि दी गई। उन्हें श्री श्री राधा श्याम सुन्दर पाद-पद्म भक्त शिरोमणि की सम्मानजनक उपाधि पूज्य श्री सत्यानारायण दास बाबाजी महंत (चतु वैष्णव संप्रदाय) द्वारा प्रदान की गयी।
प्रभुजी ने चालीस से अधिक वर्षों तक हठ योग का अध्ययन प्रतिष्ठित आचार्यों के साथ किया, जैसे कि पूज्य श्री बापूजी, स्वामी विष्णु देवानंद सरस्वती, स्वामी ज्योतिर्मयानंद सरस्वती, स्वामी सत्चिदानंद सरस्वती, स्वामी विज्ञानानंद सरस्वती, और श्री मदन-मोहन।
उन्होंने कई प्रतिष्ठित संस्थानों के संगठित हठ योग शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में भाग लिया जब तक कि उन्होंने मास्टर आचार्य का स्तर प्राप्त नहीं कर लिया। उन्होंने निम्नलिखित संस्थानों में अध्ययन पूरा किया है: शिवानंद योग वेदांत, आनंद आश्रम, योग रिसर्च फाउंडेशन, इंटीग्रल योग अकादमी, पतंजल योग केंद्र, मा योग शक्ति इंटरनेशनल मिशन, प्राण योग ऑर्गेनाइजेशन, ऋषिकेश योग पीठ, स्वामी शिवानंद योग रिसर्च सेंटर, और स्वामी शिवानंद योगासन अनुसंधान केंद्र।
प्रभुजी इंडियन एसोसिएशन ऑफ योग (IAOY), योग अलायंस ERYT ५०० और वाई.ए.सी.ई.पी , इंटरनेशनल योग थेरपिस्ट्स एसोसिएशन, और इंटरनेशनल योग फेडरेशन के सदस्य हैं। २०१४ में, इंटरनेशनल योगा फेडरेशन ने उन्हें विश्व योग परिषद के माननीय सदस्य के पद से सम्मानित किया।
मानव शरीर की जटिल बनावट में उनकी रूचि ने उन्हें तेल अवीव, इस्राइल के प्रतिष्ठित संस्थान “इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ऑफ बैक एंड एक्सट्रीमिटीज”, से “कायरोप्रैक्टी “ का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। १९९३ में उन्हें संस्थान के संस्थापक और निदेशक डॉ शेनेरमैन द्वारा डिप्लोमा प्राप्त हुआ। बाद में, उन्होंने “अकादमी ऑफ वेस्टर्न गैलिली से मसाज थेरेपी” में डिप्लोमा प्राप्त किया। उन्होंने इस क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त करके हठ योग की समझ को गहरा किया और स्वयं की विधि का निर्माण किया।
“रेट्रोप्रोग्रेसिव” योग प्रभुजी के उन प्रयासों का परिणाम है जो उनकी प्रैक्टिस और शिक्षण विधियों को सुधारने की दिशा में किया गया है। यह प्रक्रिया खासकर उनके गुरुओं और पवित्र ग्रंथों की शिक्षाओं पर आधारित है। प्रभुजी ने पश्चिमी साधको के लिए एक उपयुक्त विधि बनाने के लिए विभिन्न पारंपरिक योग तकनीकों को व्यवस्थित किया है। “रेट्रोप्रोग्रेसिव” योग का लक्ष्य हमे स्व को अनुभव कराने का है। यह उचित आहार, शुद्धिकरण, आयोजनाए, विन्यास, आसन, प्राणायाम, विश्राम, ध्यान, बंध और मुद्राओं के साथ प्राण को निर्देशित और सशक्त कर, स्वास्थ्य को प्रोत्साहित करता है।
अपने बचपन से ही प्रभुजी क्लासिक कराटे के उत्साही प्रशंसक, छात्र और प्रैक्टिशनर रहे है। १३ वर्ष की आयु से, उन्होंने चिले में विभिन्न प्रकार की शैलियों का अध्ययन किया जैसे केन्पो और कुंग-फू, लेकिन सबसे पारंगत पारंपरिक जापानी शैली शोटोकन में हुए। उन्होंने शिहान केनेथ फुनाकोशी (नौवां डैन) से ब्लैक बेल्ट (तीसरा डैन) की रैंक प्राप्त करी हैं। उन्होंने सेंसेई ताकाहाशी (सातवां डैन) से भी सीखा और सेंसेई एन्रिक डैनियल वेल्चेर (सातवां डैन) के साथ शोरिन रयु शैली का अभ्यास किया, जिन्होंने उन्हें ब्लैक बेल्ट (द्वितीय डैन) प्रदान किया। कराटे के माध्यम से, उन्होंने बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया और गति के भौतिक-शास्त्र के बारे में ज्ञान प्राप्त किया। प्रभुजी फुनाकोशी शोटोकन कराटे संघ के सदस्य हैं।
प्रभुजी एक कलात्मक वातावरण में पले बढे और चित्रकला के प्रति उनका प्रेम बचपन से ही विकसित हुआ। उनके पिता, चिली के प्रसिद्ध चित्रकार योसेफ हर-जियोन ने उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे चिली के प्रसिद्ध चित्रकार मार्सेलो क्यूवास से कला चित्रकला सीखते थे। प्रभुजी के चित्र आत्मा की गहराई को प्रतिबिंबित करते हैं।
जब से वह एक छोटे लड़के थे, तब से प्रभुजी को डाक टिकट, पोस्टकार्ड, मेलबॉक्स, डाक परिवहन प्रणालियों और सभी डाक संबंधित गतिविधियों के प्रति विशेष आकर्षण था। वह विभिन्न शहरों और देशों में डाकघरों को देखने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। उन्होंने फिलाटेली के अध्ययन में खुद को डूबा लिया, यह डाक स्टैम्प्स का संग्रह, सॉर्टिंग और अध्ययन का क्षेत्र है। इस शौक ने उन्हें एक पेशेवर फिलाटेलिस्ट, अमेरिकन फिलाटेलिक सोसाइटी में मान्यता प्राप्त टिकट वितरक और निम्नलिखित समाजों के सदस्य बनाया: द रॉयल फिलाटेलिक सोसाइटी लंदन, द रॉयल फिलाटेलिक सोसाइटी ऑफ विक्टोरिया, द यूनाइटेड स्टेट्स स्टैंप सोसाइटी, द ग्रेट ब्रिटेन फिलाटेलिक सोसाइटी, द अमेरिकन फिलाटेलिक सोसाइटी, द सोसाइटी ऑफ इजरायल फिलेटिस्ट्स, द सोसाइटी फॉर हंगेरियन फिलेटिली, द नेशनल फिलाटेलिक सोसाइटी यूके, द फोर्ट ऑरेंज स्टैंप क्लब, द अमेरिकन स्टैंप डीलर्स एसोसिएशन, द यूएस फिलाटेलिक क्लासिक्स सोसाइटी, फिलाब्रास – असोसियासाओं डोस फिलेटिलिस्टास ब्रासिलेरोस, और द कलेक्टर्स क्लब ऑफ न्यू यॉर्क सिटी।
प्रभुजी ने फिलेटिली, थियोलॉजी, और पूर्वी दर्शनशास्त्र के व्यापक ज्ञान के आधार पर “मेडिटेटिव फिलेटिली” या “फिलेटिलिक योग” नामक एक आध्यात्मिक अभ्यास बनाया, जो ध्यान, समाहिति और अवलोकन, और साधना का अभ्यास करने के लिए फिलेटिली का उपयोग करता है। मेडिटेटिव फिलेटिली प्राचीन हिंदू मंडल ध्यान से प्रेरित है और यह साधक को उच्च चेतना की अवस्था, गहरे ध्यान और विश्राम की ओर ले जा सकता है I यह चेतना की पहचान को बढ़ावा देता है। प्रभुजी ने इस नए प्रकार के योग पर अपना थीसिस “मेडिटेटिव फिलेटिली” लिखा जिसने भारतीय शैक्षिक समुदाय को आकर्षित किया। इसमें विभिन्न शौक और गतिविधियों को ध्यान से जोड़ने का नवीनतम तरीका है, इस थीसिस के लिए उन्हें योग-संस्कृतम विश्वविद्यालय से योगिक दर्शन में डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया।
प्रभुजी इस्राइल में बहुत सालों तक रहे, जहाँ उन्होंने अपने यहूदी धर्म के अध्ययन को आगे बढ़ाया। सन् १९९७ में वो दिवंगत रIबी शालोम दोव लिफ्शिट्ज से मिले जो उनके मुख्य शिक्षक और प्रेरणास्रोत रहे। इन महान संत ने उन्हें तोराह और हसीदवाद के कठिन मार्गों पर कई सालों तक मार्गदर्शन दिया। दोनों के बीच एक बहुत ही आत्मीय संबंध विकसित हुआ। प्रभुजी ने रI’बी राफैल रपपोर्ट (पोनोविच) के साथ तलमुद, रI’बी इसराएल लिफशिट्ज के साथ हसीदवाद, और रI’बी डेनियल सैंडलर के साथ तोराह का अध्ययन किया। प्रभुजी दिवंगत रI’बी मोर्डेचाई एलियाहू के महान भक्त हैं, जिन्होंने उन्हें व्यक्तिगत रूप से आशीर्वाद दिया था।
साल २००० में प्रभुजी ने संयुक्त राज्य अमेरिका का भ्रमण किया और अपने न्यूयॉर्क प्रवास के दौरान उन्हें एहसास हुआ कि धार्मिक संगठन स्थापित करने के लिए यह सबसे उपयुक्त स्थान है। उन्हें अमेरिकी समाज की बहुमती और धार्मिक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से खास आकर्षण हुआ। उन्हें अमेरिकी समाज एवं सरकार दोनों का धार्मिक अल्पसमूहों के प्रति विशेष सम्मान ने बहुत प्रभावित किया। अपने गुरुओं से परामर्श कर के एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करके, प्रभुजी अमेरिका स्थानांतरित हो गए। २००३ में प्रभुजी मिशन का जन्म हुआ । यह एक हिंदू संस्थान है जो प्रभुजी के हिंदू धर्म के प्रति दृष्टिकोण और “रेट्रोप्रोग्रेसिव” पथ के सार्वभौमिक और बहुलवाद दृष्टिकोण को संरक्षित रखने का उद्देश्य रखती है।
हालांकि उन्होंने अनुयायियों को आकर्षित करने की कोई कोशिश नहीं की, पंद्रह वर्षों (१९९५-२०१०) तक प्रभुजी ने कुछ लोग जो उनके संन्यासी शिष्य बनना चाहते थे, के अनुरोधों का विचार किया। जिन्होंने प्रभुजी को अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में देखा, उन शिष्यों ने स्वेच्छा से वैराग्य स्वीकारा और साधना, भक्ति और निःस्वार्थ सेवा के लिए जीवन-पर्यन्त समर्पण का वचन लिया। हालांकि अब प्रभुजी नए शिष्यों को स्वीकार नहीं करते, लेकिन उन्होंने अपने स्थापित किए गए रामकृष्णानंद मोनास्टिक ऑर्डर के छोटे समूह का मार्गदर्शन करना जारी रखा हैं।
२०११ में, प्रभुजी ने न्यूयॉर्क राज्य के कैट्सकिल पर्वतों में अवधूताश्रम (मठ) की स्थापना की। अवधूताश्रम प्रभुजी मिशन का मुख्यालय, उनका आश्रम और रामकृष्णानंद मोनास्टिक ऑर्डर के संन्यासी शिष्यों का निवास स्थान है। आश्रम मानवीय परियोजनाओं का आयोजन करता है जैसे कि “प्रभुजी फूड डिस्ट्रीब्यूशन प्रोग्राम” और “प्रभुजी टॉय डिस्ट्रीब्यूशन प्रोग्राम”। प्रभुजी विभिन्न मानवीय परियोजनाओं का संचालन करते हैं और मानते है कि किसी भी अंश की सेवा करना सम्पूर्ण की सेवा करना है।
जनवरी २०१२ में, प्रभुजी के स्वास्थ्य ने उन्हें मिशन का प्रबंधन आधिकारिक रूप से त्यागने के लिए मजबूर कर दिया। तब से वह एकांत में रहते हैं, सम्पूर्णतः सार्वजनिक जीवन से दूर, लेखन, मनन और ध्यान में लीन रहते हैं। उनका संदेश सामूहिक आध्यात्मिकता को प्रोत्साहित करना नहीं, अपितु व्यक्तिगत आंतरिक खोज और आत्म साक्षात्कार को प्रोत्साहित करता है।
प्रभुजी ने अपने शिष्यों को यह निर्णय लेने का अधिकार दिया है कि वे उनके शिक्षाओं को केवल मोनास्टिक ऑर्डर के भीतर रखें या उनके संदेश को सार्वजनिक लाभ के लिए फैलाएं। अपने शिष्यों के स्पष्ट अनुरोध पर, प्रभुजी ने अपनी पुस्तकों को प्रकाशित करने और उनके व्याख्यानों को प्रसारित करने की अनुमति दी है, बशर्ते इससे उनकी गोपनीयता और एकांतवास जीवन प्रभावित न हो।
२०२२ में, प्रभुजी ने “रेट्रोप्रोग्रेसिव” इंस्टीट्यूट की स्थापना की। यहां उनके सबसे वरिष्ठ शिष्य प्रभुजी की शिक्षाओं और संदेश को वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से व्यवस्थित रूप से साझा करते हैं। यह संस्थान प्रभुजी की शिक्षाओं की बेहतर समझ के लिए सहायता प्रदान करता है।
प्रभुजी विभिन्न संस्थाओं के सम्मानित सदस्य हैं: अमेरिकन फिलोसोफिकल एसोसिएशन, अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ़ फिलोसोफी टीचर्स, अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ़ यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स, द साउथवेस्टर्न फिलॉसफिकल सोसाइटी, द ऑथर्स गिल्ड, द नेशनल राइटर्स यूनियन, द पेन अमेरिका, द इंटरनेशनल राइटर्स एसोसिएशन, द नेशनल एसोसिएशन ऑफ इंडिपेंडेंट राइटर्स एंड एडिटर्स, द नेशनल राइटर्स एसोसिएशन, द एलायंस इंडिपेंडेंट ऑथर्स और द इंडिपेंडेंट बुक पब्लिशर्स एसोसिएशन।
प्रभुजी के विशाल साहित्यिक योगदान में स्पेनिश, अंग्रेजी, और हिब्रू में पुस्तकें शामिल हैं, जैसे कि “कुंडलिनी योग: शक्ति आपके भीतर है”, “भक्ति-योग: प्रेम का पथ”, तंत्र: संसार में मुक्ति”, “सत्य का प्रयोग”, “अद्वैत वेदांत: स्वयं बनो”, ईशावास्य उपनिषद और डायमंड सूत्र पर टिप्पणियाँ, “मैं वही हूँ जो मैं हूँ” (मैं जो हूं सो हूं), प्रतीकात्मक मोड़, बीइंग, अपने उत्तरों पर प्रश्न, और पवित्रता का प्रकट होना।